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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


इस इशारे का अर्थ समझकर भारती ऊपर के कमरे में चली गई। वहां जाकर देखा, चीज़ें और सामान चारों ओर बिखरे पड़े हैं और अपूर्व कम्बल पर औंधा पड़ा है। नई चादर से उसका मुंह ढंका है वह जाग रहा है या सो रहा है यह नहीं समझ सकी। सुना था, साथ में एक नौकर आया है लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दिया।

अपूर्व बाबू! भारती ने पुकारा।

अपूर्व उठकर बैठ गया। उसने भारती के चेहरे की ओर एक बार देखा और फिर अपने दोनों घुटनों में मुंह छिपा लिया, कुछ देर बाद आंखें ऊपर उठाकर सीधा बैठ गया। उसके चेहरे पर मातृ-वियोग की असीम वेदना जम गई थी। लेकिन आवेश या चंचलता नहीं थी। शोक से बोझिल, गम्भीर दृष्टि के सामने इस संसार का सब कुछ मानो उसके लिए एकदम झूठा हो गया है, मां के आंचल की छाया के नीचे रहने वाले जिस अपूर्व को उसने एक दिन पहचाना था। यह अपूर्व वह नहीं है। भारती आश्चर्य में पड़कर अवाक हो गई।

अपूर्व बोला, यहां बैठने के लिए कुछ नहीं है भारती, सारी जगह भीगी हुई है। तुम बक्स पर बैठ जाओ।

भारती किवाड़ की चौखट पकड़े, आंखें झुकाए जिस तरह खड़ी थी उसी तरह खड़ी रह गई। कुछ देर तक दोनों के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला।

फिर अपूर्व ही बोला, बैठ जाओ भारती।

भारती बोली, बैठने पर शाम हो जाएगी।

क्या इसी समय चली जाओगी? बैठ नहीं सकोगी?

भारती बक्स पर बैठ गई। फिर बोली, 'मां यहां आई थीं। यह बात मुझे मालूम नहीं थी। मैंने उनको देखा नहीं, लेकिन मेरी छाती के भीतर आग-सी जल रही है। इस संबंध में कुछ कहकर मुझे और दु:ख मत देना? कहते-कहते उसकी आंखों से आंसू लुढ़क पड़े।

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