ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व स्तब्ध हो रहा। भारती ने आंचल से आंसू पोंछते हुए कहा, समय आ गया, मां चली गई। पहले मैंने सोचा था, इस जन्म में कभी तुम्हें अपना मुंह नहीं दिखाऊंगी। लेकिन तुमको इस तरह अलग फेंककर भी कैसे रह सकती हूं? मेरे साथ गाड़ी आई है, उठो, मेरे घर चलो। फिर उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी।
अपूर्व ने शांत स्वर में कहा, अशौच का झमेला बहुत है। वहां सुविधा न होगी भारती। इसके अतिरिक्त इसी शनिवार के स्टीमर से मैं घर वापस चला जाऊंगा।
भारती बोली, शनिवार में अभी चार दिन हैं। मां की मृत्यु के बाद कुछ झमेला रहता है, यह मैं जानती हूं। लेकिन उसे मैं सह न सकूंगी तो क्या धर्मशाला के यह लोग सहेंगे? चलो।
अपूर्व बोला, नहीं।
भारती बोली, नहीं कह देने से ही अगर तुम्हें इस हालत में छोड़कर चली जा सकती तो यहां आती ही नहीं अपूर्व बाबू.... यह कहकर एक-पल चुप रहकर बोली, इतने दिनों के बाद तुमसे छिपकर कहने या लज्जित होकर कहने के लिए कोई भी बात नहीं रही। मां का अंतिम कार्य बाकी है, शनिवार को जहाज़ से तुम्हें घर वापस जाना ही पड़ेगा। उसके बाद क्या होगा, मैं यह भी जानती हूं। मैं तुम्हारी किसी व्यवस्था में बाधा नहीं दूंगी। लेकिन इस अवसर पर कुछ दिनों में भी अगर तुम्हें अपनी आंखों के सामने न रख सकी तो तुम्हारी ही शपथ लेकर कह रही हूं - घर लौटकर मैं आज ही विष खाकर प्राण त्याग दूंगी। मां का शोक इससे बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं अपूर्व बाबू!
अपूर्व खड़ा होकर बोला, नौकर को बुलाओ - सब चीज़ें और सामान बांध डाले।
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