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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


शशि को याद न रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस बीच अपूर्व के साथ एक घटना और हुई है जिसे भारती के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था। सांसारिक दृष्टि से उसका फल और परिणाम, मातृ वियोग से विशेष कम नहीं है। मां की मृत्यु का समाचार पाकर अपूर्व के बड़े भाई विनोद बाबू ने तार द्वारा दु:ख प्रकट किया है। इसके अलावा तार में और कोई भी बात नहीं है। मां ने नाराज होकर सम्भवत: अत्यंत अपमानित होकर अंत में गंगाविहीन म्लेच्छ देश बर्मा में स्वयं को निर्वासित किया था। इस बात को समझकर अपूर्व दु:ख और क्षोभ से पागल-सा हो गया था। उसने जो दो दिन कलकत्ते में बिताए थे उनमें अपने घर पर न तो भोजन किया था और न वहां पर सोया ही था और वापस लौटते समय अच्छी तरह झगड़ा करके ही आया था। फिर भी इतनी बड़ी भयंकर दु:खद घटना में सबसे छोटा भाई होने के कारण उसे पूरा-पूरा भरोसा था कि उसे ले जाने के लिए घर से कोई-न-कोई ज़रूर आएगा। तिवारी घर पर रहता तो क्या होता, कहा नहीं जा सकता। लेकिन वह भी नहीं है। छुट्टी लेकर अपने देश गया है।

सवेरे ही अपूर्व ने भारती से कहा, बंगाली पुरोहित यहां भी हैं। मैं कलकत्ते नहीं जाऊंगा। जैसे भी होगा, मां का श्राद्ध यहीं करूंगा।

मां के अचानक घर छोड़कर चले आने का कारण लड़कों के प्रति उनका अजेय मान-अभिमान था। यह बात अपूर्व मालूम करके आया था। केवल ईसाई कन्या भारती की कहानी का उसमें कितना अंश सम्मिलित था यह वह नहीं जान पाया था। सांघातिक पीड़ित, लगभग अचेत मां से कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला और विनोद बाबू ने नाराजी के कारण कुछ बताया नहीं।

सहसा सुमित्रा हड़बड़ाकर बोली, किसी ने नीचे का दरवाजा खोला है।

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