ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
डॉक्टर ने पल भर उसके चेहरे की ओर देखकर शायद उसके मन की सच्ची पीड़ा का अनुभव कर लिया। स्नेह भरे कोमल स्वर में बोले, मनुष्य की इस दशा के बारे में मुझे सोच-विचार करने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी अपूर्व बाबू! लेकिन सहज बुद्धि से मालूम होता है कि शायद यह भूल होगी। कड़वाहट के बीच संसार छोड़ देने से केवल भाग्यहीन, श्री भ्रष्ट जीवन ही बिताया जा सकता है, लेकिन वैराग्य साधन नहीं होता। करुणा और आनंद पूर्वक नहीं जीने पर क्या होता है - मैं तो नहीं जानता।
भारती बोल उठी, तुम ठीक कहते हो भैया। तुम्हारे मुंह से कभी ग़लत बात नहीं निकलती। यही सत्य है।
डॉक्टर बोले, मालूम तो यही होता है। मां मर गईं। वह क्यों आई थीं? किस कारण आप जाना नहीं चाहते, यह मैं कुछ भी नहीं जानता। लेकिन किसी के आचरण से अगर आपको कटुता मिली हो तो क्या भविष्य में जीवन का एक वही सत्य हो गया और कहीं से अगर अमृत मिला हो तो जीवन में क्या उसका मूल्य ही नहीं देंगे?
अपूर्व कहने लगा, अगर भैया मैं.....!
डॉक्टर बोले, संसार में क्या अपूर्व के भैया विनोद बाबू ही हैं? भारती के भैया सव्यसाची नहीं हैं? उस घर में अगर आपके लिए स्थान न भी हो तो कलकत्ते का वह छोटा-सा मकान ही क्या वामन के विश्वव्यापी पैर के नीचे नहीं की पृथ्वी है? संसार में कहीं क्या आपके लिए स्थान नहीं है? अपूर्व बाबू, हृदय का आवेग अमूल्य वस्तु है। लेकिन उससे अगर चैतन्य को ढंककर रखा जाए तो उससे बड़ा शत्रु मनुष्य के लिए दूसरा कुछ भी नहीं है।
अपूर्व बोला, धर्म की साधना या आत्मा की मुक्ति कामना से तो मैं संसार छोड़ना नहीं चाहता डॉक्टर। अगर छोडूंगा तो दूसरों के लिए ही छोडूंगा। मुझ पर विश्वास करना आप लोगों के लिए कठिन है। न कभी करें तो दोष देने की कोई बात नहीं है। लेकिन एक दिन जिस अपूर्व को आप लोग जानते थे, मां की मृत्यु के बाद अब वह अपूर्व नहीं रहा।
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