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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


डॉक्टर ने पूछा, दिव्य-दृष्टि से तुम और कुछ नहीं देख पाते कवि?

शशि ने कहा, वह भी देख पाता हूं। इसीलिए तो आपको देखते ही तत्काल मालूम हो जाता है कि बिना उपद्रव शांतिपूर्ण पथ में अगर हम लोगों के जीवन पथ का दरवाजा सुई की नोक भर भी खुला रहता....।

अपूर्व बोल पड़ा, वाह, एक ही साथ दो परस्पर विरोधी बातें?

सुमित्रा ने हंसी छिपाने के लिए अपना मुंह फेर लिया।

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, इसका कारण यह है अपूर्व बाबू कि इसमें दो सत्ताएं मौजूद हैं। एक शशि की और दूसरा कवि की। इसलिए सबके मुंह की बात दूसरे के मन की बात को धक्का मारकर ऐसा बेसुरा राग अलापने लगती है। कुछ रुककर बोले, बहुत से मनुष्यों में इसी प्रकार दूसरी सत्ता छिपी रहती है। उसे सहज ही नहीं पकड़ा जा सकता। इसीलिए मनुष्य की बात और उसके काम में सामंजस्य का अभाव देखते ही उसका कठोर निर्णय कर डालने से उसमें अन्याय की सम्भावना कम नहीं रहती, अधिक रहती है। अपूर्व बाबू, मैंने तुमको पहचान लिया था लेकिन सुमित्रा नहीं पहचान सकी थी। भारती, जीवन-यात्रा के बीच अगर तुम ऐसा ही कोई चोट खाओ तो अपने इस परलोक गत भाई की बात मत भूल जाना। लेकिन अब मैं जा रहा हूं। मेरी नाव घाट पर बंधी हुई है। भाटे के समय न चल पड़ने पर मैं सवेरे जहाज़ नहीं पकड़ पाऊंगा।

भारती आशंका से व्याकुल हो उठी, इस भयंकर नदी में? इस भीषण तूफ़ानी रात में?

उसके व्याकुल कंठ स्वर में सुमित्रा के आत्मसंयम का सुदृढ़ बांध टूट गया। उसने फीके चेहरे से पूछा, क्या तुम सचमुच ही सिंगापुर जा रहे हो? यह काम तुम कभी मत करना डॉक्टर। वहां की पुलिस तुम्हें अच्छी तरह पहचानती है। इस बार उसके हाथ से तुम किसी प्रकार भी....

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