ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व बोला, “सम्भवत: वह लोग जाति-भेद अर्थात् खान-पान और छूत-छात का विचार नहीं करते होंगे?”
भारती ने कहा, “नहीं।” फिर हंसती हुई बोली, “लेकिन अगर कोई यह सब माने तो उसके मुंह में हम लोग कोई खाद्य पदार्थ जबर्दस्ती ठूंस भी नहीं देते। मनुष्य की व्यक्तिगत मान्यता का हम सम्मान करते हैं। आपको कोई भय नहीं है।”
“भय की बात क्या है?”-आपकी तरह शिक्षित महिलाएं भी संभव है आपके दल में हैं?”
“मेरी तरह?- हमारी जो अध्यक्षा हैं उनका नाम है सुमित्रा। वह अकेली ही पूरे विश्व का भ्रमण करके आई हैं। डॉक्टर के अतिरिक्त उन जैसी विदुषी सम्भवत: इस देश में और कोई नहीं है।”
“और जिन्हें आप डॉक्टर कह रही हैं वह?”
“डॉक्टर?” श्रद्धा और भक्ति से भारती की दोनों आंखें छलक आईं, बोली, “उनकी बात रहने दें, अपूर्व बाबू! परिचय देने लगूंगी तो उनको छोटा बना डालूंगी।”
अपूर्व चुप रहा। देश-प्रेम का पागलपन तो उनके रक्त में विद्यमान था ही। 'पथ के दावेदार' का विचित्र नाम उसे अपनी ओर आकर्षित करने लगा। उसके साथ घनिष्ठ रूप से मिलने के लोभ को रोक रखना कठिन हो गया। फिर भी एक प्रकार की विजातीय, धर्महीन, अस्वास्थ्यकर भाप नीचे से उठकर उसके मन को धीरे-धीरे ग्लानि से भरने लगी।
शोर बढ़ रहा था। भारती बोली, “चलिए, नीचे चलें।”
अपूर्व बोला, “चलिए।”
दोनों नीचे पहुंचे तो भारती ने उसे बेंत के एक सोफे पर बैठने को कहा और जगह की कमी के कारण स्वयं भी उसके पास बैठ गई।
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