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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


मनोहर बाबू पागल हो उठे। एकदम सीधे खड़े होकर बोले, “अच्छा, मैं जाता हूं। गुडबाई।”- यह कहकर दरवाजे के पास पहुंचकर क्रोध से पागल होकर बोले, “मैं तुम लोगों का सारा हाल जानता हूं। तुम लोग ब्रिटिश राज्य को समाप्त कर सकोगी, कभी सोचना मत। मैं एक एडवोकेट हूं। किस तरह तुम्हारे हाथों में हथकड़िया डाली जा सकती हैं, मैं अच्छी तरह जानता हूं।” अच्छा....यह कहकर वह चले गए।

अचानक यह कौन-सा कांड हो गया। यद्यपि किसी ने भी उत्तेजना प्रदर्शित नहीं की तो भी सभी के चेहरे पर एक छाया-सी डोल गई। केवल एक व्यक्ति, जो कोने में बैठा लिख रहा था, उसने एक बार भी आंख उठाकर नहीं देखा। अपूर्व ने सोचा - या तो यह एकदम बहरा है या पत्थर की भांति निर्विकार है। मनोहर ने इस समिति के विरुद्ध जो बात कही, वह अत्यंत संदेहपूर्ण है। इतनी बड़ी संख्या में इन आश्चर्यमयी नारियों ने कहां से आकर यह समिति स्थापित की है? इसका उद्देश्य क्या है? भारती को अचानक इसका पता कैसे लगा? और यह आदमी जो टिकट के बदले शराब खरीदकर पी लेने पर उसके सामने ही पकड़ा गया था - और सबसे बढ़कर वह नवतारा, जो पति को छोड़कर देश का काम करने आई है। सतीत्व की रक्षा की बात पर सोचने के लिए जिसके पास समय नहीं है - फिर भी यह सब लोग इतने बड़े अन्याय का समर्थन ही नहीं कर रहे, उसे प्रश्रय भी दे रहे हैं और जो इस दल की अध्यक्षा हैं, उन्होंने स्वयं स्त्री होते हुए भी खुली सभा में इतने पुरुषों के सामने सती धर्म के प्रति उसकी गहरी अवज्ञा निस्संकोच प्रकट करने में लज्जा नहीं की।

कुछ देर तक लोगों में खामोशी छाई रही। बाहर अंधेरा था। राजपथ सुनसान पड़ा था। एक प्रकार की उद्विग्न आशंका से अपूर्व का मन भारी हो गया।

अचानक सुमित्रा बोल उठीं, “अपूर्व बाबू!”

अपूर्व ने चकित होकर मुंह उठाकर देखा।

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