ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
स्वामी,
जीजा जी का खत फिर आया है। मुझे कुछ दिनों के लिए अपने यहाँ बुलाया है। क्या आज्ञा देते हो? जाऊँ? कुछ दिनों के लिए हो आऊँ? आज्ञा है? सास जी कहती है कि इतनी जल्दी मेरा जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता। यह क्या कि दुल्हन के पैरों पर मेंहदी अभी ताजी है और कभी यहाँ के फेरे और कभी वहाँ के। परन्तु उन्हें कैसे बताऊँ कि दुल्हन के हाथों और पैरों की मेंहदी तो बहुत दिनों से सूख गई है। मेंहदी तो मेंहदी दिल की कोंपलें तक सूख गई हैं।
हाँ रह भी क्या गया है मुझमें? आत्मा है तो घायल। स्वप्न हैं तो नुँचे-खुचे। शरीर है तो एक बेजान बोझ।
इस बोझ को तो घसीटते-घसीटते थक गई हूँ। बहुत थक गई हूँ। यह बोझ.....जाने कब तक घसीटना पड़ेगा? राहें इतनी कठिन हैं। कहीं विश्राम-गृह भी तो नहीं। काश कुछ क्षणों के लिए कहीं सुस्ता सकती।
यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो इस बार जब जीजा जी के यहां से कोई मुझें लेने आये तो 2-4 दिनों के लिए चली जाऊँ। शायद मन बहल जाये।
या फिर जैसा तुम कहो।
सुधा
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