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पिया की गली

कृष्ण गोपाल आबिद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9711

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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण


मेरे स्वामी, मेरे मलिक, मेरे प्राण।

कितने ही दिनों से सोच रही हूँ क्या तुम मुझसे नाराज हो गये हो। अगर नहीं तो इस तरह खामोश क्यों हों? जानते हो जीवन को पल-पल तुम्हारा सहारा रहता है फिर इस तरह खामोश रह कर, इस तरह खत न लिख कर, इस तरह इतना अरसा अपनी कोई सूचना न दे कर, क्या तुम चाहते हो कि मै अपनी ही दुर्बलता का शिकार बन जाऊँ?

नहीं मेरे देवता, तुम इस तरह पत्थर बन कर मेरे लुटने का तमाशा नहीं देख सकते। नहीं देख सकते।

देखो मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूँ। मुझे इस तरह इतने गहरे दुखों के हवाले न किया करो। कितने ही दिन हो गये मुझे यहाँ आये और तुम्हारी तरफ से एक खत तक नहीं।

तुम्हारी ही आज्ञा से तो मैं यहाँ आई हूँ। तुमने ही तो मुझे हुकुम दिया था औऱ माँ जी को खत था कि सुधा अपने मायके चली जाये तो अच्छा हो। फिर इस तरह खत न लिखकर क्या तुम यह सिद्ध करना चाहते हो कि मैंने यहाँ आने के विषय में तुमसे आज्ञा माँग कर ग़लती की।

मैं जानती हूँ कि वहाँ मेरे न होने से सबको तकलीफ होती होगी। घर का इतना सारा काम-काज होता है। अब कौन करता होगा? मेरे आने के बाद तो नौकरानी को भी निकाल दिया गया था। फिर? क्या होता होगा अब?

परन्तु सोचती हूँ मुझसे पहले भी तो घर का कारोबार चलता ही था न औऱ शायद अच्छे तरीके से चलता था। मेरी उपस्थिति में तो उन सब लोगों को सदैव तुम्हारी ही उपस्थिति का आभास रहता होगा औऱ तुम्हारी उपस्थिति वहाँ कोई भी सहन नहीं कर सकता।

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