ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
इसीलिए अब, जब मैं वहाँ नहीं हूँ, शायद वे लोग इस तरह हर समय गुस्से में न रहते होंगे औऱ बार-बार तुम्हारी निन्दा न करते होंगे।
परन्तु खैर, यह तो उनका काम है। मुझे अपने कर्तव्य से गरज है और बस। परन्तु तुम इस तरह बार-बार दुखी करोगे तो याद रखो कि एक दिन मुझे खो बैठोगे। हाँ, खो बैठोगे और बस इसके सिवाय मैं कुछ न कहूँगी। केवल इन्तजार करती रहूँगी।
देखूँ, तुम्हें कब दया आती है?
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पतिदेव,
हां, आज बिस्तर से लगे मुझे कई दिन हो गये हैं।
यूँ लगता है कि मुझमें प्राण ही नहीं रहे। निर्जीव हो गई हूँ। हाथ पैर तक नहीं हिला सकती। देखोगे, तो पहचान भी नहीं पाओगे। वहां तो इतनो शक्ति थी औऱ यहां आकर यूँ लगने लगा है मानो.......
उस मुसाफिर की हालत के विषय में जरा सोचो जो राह भूल बैठा हो। आँधियों और तूफानों में आ घिरा हो, पथरीले और नुकीले रास्ते हों, औऱ वह घायल हो बैठा हो।
पैरों में छाले पड़ गए हों। आँखों की रोशनी मध्यम पड़ गई हो। परन्तु आगे ही आगे बढ़ता जा रहा हो, बढ़ता ही जा रहा हो। कंधों पर पवित्र कर्तव्य का बोझ उठाये। अचानक रास्ते में ही सुस्ताने की जगह मिल जाती हो। आरामदेह बिस्तर मिल जाता हो, पेट भर भोजन मिल जाता हो।
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