ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
तब बाहर के तूफानों पर द्वार बन्द करके जब वह मुसाफिर अपने आपको देखता है तो पाता है कि वह तो बुरी तरह घायल हो चुका है।
हैरान होता है कि इतनी दूर तक आ कैसे गया? किस हिम्मत के बल-बूते पर वह आगे ही आगे बढ़ रहा था।
तब वह थक हारकर आँखें बन्द कर लेता है औऱ अनुभव करता है कि अब तो आगे एक कदम भी नहीं चला जायेगा।
बस यही हालत मेरी है।
यहाँ आई, ज़रा-सा अवकाश मिला। अपने विषय में कुछ सोचने की फुर्सत मिली। तुम्हारी याद में रोई। यहाँ के लोगो की सहानुभूतियाँ औऱ दिलासे मिले, तो मुदृतों से जागती आँखें मुंद गई और अब जाने क्यों यह आँखें खोल भी नहीं पाती।
जाने कैसा डर लगता है? हर समय घेरे रहता हैं यह डर। यह कैसा डर है? लोग कहते है मुझे तेज बुखार है। बिस्तर से उठने भी नहीं देते। बस चुपचाप पड़ी रहती हूँ। दीवार की तरफ करवट बदले तुम्हें याद किया करती हूँ। आप ही आप रोती रहती हूँ। किसी दूसरे को अपने आँसू दिखा भी तो नहीं सकती।
साहस भी कहाँ से लाऊँ? यहाँ तो सबसे यही कहती हूँ कि तुम भगवान की तरह दयालु हो औऱ तुम्हारा घर मेरा स्वर्ग हैं। जहां मुझें सब सुख उपलब्ध हैं।
तुमसे औऱ तो कुछ नहीं चाहती थी सिर्फ तुम्हारे खतों का सहारा चाहती थी, वह भी तुम छीन बैठे हो। क्या मुझसे नाराज़ हो?
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