ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
भयंकर गुस्से औऱ घृणा से चिल्लाते हुए कहने लगे, "हरामजा़दे। तुम...तुम....मेरे मुँह पर इस तरह से कालिख मलोगे मुझे पता न था। बहुत दिन से तुम लोगों की बातें सुन रहा था परन्तु इस घर की दीवारों को मैं गुनाहगार न होने दूँगा।“
"पिता जी.....पिता जी.....देखिये ज़बान को काबू में रखिये। मुझे मार डालिये परन्तु उस देवी के लिए.....।“
"देवी?" उन्होंने नफरत से थूका। "बहुत दिनों से तुम्हारी देवी के किस्से सुन रहा था। उससे तो बाद में समझूँगा परन्तु तुम....तुम्हारे लिए इस घर में अब कोई जगह नहीं है। निकल जाओ.....निकल जाओ अभी इसी वक्त। तुम सब लोग इस तरह देख क्या रहे हो? उठा कर फेंक दो इसे बाहर कहीं। कहीं मैं इसका खून न कर बैठूँ।"
बादल अपने दिल का सारा गुबार आज ही निकालने पर तुले थे इतनी तेज़ आँधियाँ और इतने तूफान....बिजली....रह-रह कर तड़प रही थी औऱ आशियानों को जला रही थी।
"हाँ, हाँ निकाल दी इसे" एक जो़रदार गरज दीवारों को हिला रही थी। "मैं इसका मुँह तक नहीं देखना चाहता। कह दो इससे....कह दो, वह मेरे लिए मर गया। फैंक दो इसे बाहर। सारे सम्बन्ध खत्म कर दो इससे। वह कमीना है, ज़लील है। खानदान के मुँह पर कालिख पोती है इसने।"
द्वार बन्द हो गये।
बाहर तूफान थे।
अन्दर तूफान थे।
बाहर वर्षा थी।
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