ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
अन्दर आग थी। नफरत की आग थी। गुस्से की आग थी। घृणा की आग थी। मौत की आग थी।
आँसू जम गए थे।
चीखें मर गई थी।
दुनियाँ और सारे रिश्ते...
यह सारे घृणात्मक रिश्ते..।
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औऱ बन्द द्वारों के अन्दर एक चीख़ बार-बार बुलन्द हो रही थी।
तेज बुखार की आग में वह चीख बार-बार कमरे की दीवारों को हिला रही थी, "उसे रोको। उसे मत जाने दो। बाहर के तूफान में वह खो जायेगा। उसका कोई कसूर नहीं। वह निर्दोष है। रोको.......उसे रोको।“
"कोन रोकेगा उसे? तुम? कुलटा-पापन तुम? वैश्या, तुम? जिसने मेरे हरे-भरे घर को बर्बाद कर डाला। तुममें इतनी हिम्मत है कि उसे रोक सको? वह पत्थर बनी उन्हें देखती रही।“
"तो जाती क्यों नहीं रोकने? जाओ उसे रोक लो। जाओ। उसी के साथ जाओ। जाओ। मरो। अपना यह मनहूस साया यहाँ से हटाओ। जाओ।
हाँ-हाँ, इसे भी जाना होगा। इस घर में गुनाह कभी न पनप सकेगा। तुम लोगों ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? निकाल दो इसे भी धक्के दे कर। बाहर फेंक दो इसे अपने यार के पास। फिर दोनों मिल कर गुलछरें उडा़ये।
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