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प्रेरक कहानियाँ

कन्हैयालाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :35
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9712

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मनोरंजक और प्रेरणाप्रद बोध कथाएँ

 

12. सुख-दु:ख


किसी देश की सीमा पर शत्रु-सेना ने आक्रमण किया तो उस देश को भी अपनी सीमा की रक्षा के लिए अपनी सेना को शत्रु-सेना से लोहा लेने भेजना पड़ा। सीमा पर पहाड़ी मार्ग था, रात का अँधेरा घिरा तो दस सैनिकों की टुकड़ी मार्ग भटक गई।

रात में अपने साथियों को खोज पाने का कोई उपाय न था। उन सिपाहियों ने रात-बसेरे के लिए एक पहाड़ी-नदी के किनारे अपना पड़ाव डाल दिया। वे पत्थर की चट्टान पर लेट गये तो उनमें से एक सैनिक बोला-'हम लोगों का जीवन भी कैसा अजीब है! भूख से आँतें निकली पड़ रही हैं और हम इस पथरीली भूमि में पड़े हुए हैं। न सोने का ठिकाना और न भोजन का इंतजाम!'

उसकी निराशा भरी बातों को सुनकर उसका दूसरा साथी बोला-'प्यारे दोस्त! छावनी में पड़े सुख-सुविधा से परिपूर्ण जीवन भी तो हम ही बिताते हैं। जिसने दुःख का दर्द न सहा हो, वह बेचारा सुख का सच्चा आनन्द भी नहीं ले सकता।'

उसकी बातों का समर्थन करता हुआ तीसरा सैनिक बोल उठा-'सही कह रहे हो भाई! शत्रु-सेना पर विजय पाकर जब हम लौटेंगे तो क्या राजा और क्या सेनापति, सभी हमारी प्रशंसा करते नहीं अघायेंगे।'

निराश सैनिक ने उपेक्षा से कहा-' हुँह...मन के लड्डू मुँह मीठा नहीं किया करते जनाब! हम साथियों से भटक चुके हैं, अभी तो निश्चयपूर्वक यह भी नहीं कह सकते कि हम अपने साथियों को भी खोज पायेंगे, शत्रु की सेना को जीतना तो दूर की बात है।'

वे इस तरह बातें कर ही रहे थे, तभी वहाँ एक बौने कद का साधु आया और उनसे बोला - 'प्यारे भाइयो! तुम लोग सबेरे उठकर जब चलने लगो तो एक-एक मुट्ठी इस नदी की बालू अपनी-अपनी जेबों में भर लेना। उस बालू को दोपहरी में सूरज की रोशनी में देखना, तुम्हें दुःख और सुख के दर्शन हो जायेंगे।'

यों कहकर वह साधु तेज कदमों से चला गया और उन लोगों की आँखों से ओझल हो गया। फिर तो अपनी स्थिति पर विचार करना छोड्कर सैनिक भी उस विचित्र साधु की ही चर्चा करने लगे।

सुबह मुँह-अन्धेरे वे उठे और साधु के निर्देश के अनुसार सबने एक-एक मुट्ठी नदी की बालू अपनी-अपनी जेब में डाल ली और चल पड़े। दोपहर को जब उन्होंने रेत को देखा तो आश्चर्य के मारे उनकी आखें चौड़ी हो गयीं। जिसे वे रेत समझ रहे थे, वे निरे रत्न थे - मूँगा और मोती! जो सन्तोषी प्रकृति के सिपाही थे, वे तो प्रसन्ता से चहकते हुए बोले - 'हम मालामाल हो गये।

दोस्तो! किन्तु जो निराश मनोवृत्ति के सिपाही थे, वे बोले-अरे कम्बख्तो! तुम हँस रहे हो, तुम्हें तो रोना चाहिए।' यों कहकर वे अपना सिर थामते हुए मुँह लटका कर बैठ गये।

'क्यों, क्या हुआ भाई?' साथियों ने उनसे पूछा।

'अबे उल्ल की दुमो ! यह बताओ कि क्या नहीं हुआ? हमारा सर्वनाश हो गया! हम लुट गये !!'

'आखिर कैसे? कुछ पता तो चले कि तुम्हारे ऊपर कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा है?' मुस्कराकर साथी बोले।

'अरे, तुम तो निरे घामड़ हो, कम्बख्तो ! यह तो सोचो कि हम एक मुट्ठी रेत के स्थान पर अपने थैले-भर रेत भी तो ला सकते थे? मालामाल तो हम तब होते!'

अपने निराश साथियों की यह बात सुनी तो शेष सभी ठहाका मारकर हँसते हुए बोले - 'उस बेचारे साधु को अपना जीवन भी तो प्यारा था। यदि वह तुम्हें थैला भरकर रेत ले जाने की सलाह देता तो तुम उसकी बात पर विश्वास कर लेते क्या?'

तभी उन्हें साधु द्वारा कही गई बात स्मरण हो आई कि सुख और दुःख वास्तव में अपने-अपने विचारों पर निर्भर करता है। मनुष्य किसी भी परिस्थिति में स्वयं को सुखी या दुःखी अनुभव कर सकता है।

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