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श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


वेदना से उसका चेहरा पीला पड़ गया, कहा, “अब गलती न होगी जो दण्ड मिला है उसे अब नहीं भूलूँगी। यही मेरा सबसे बड़ा लाभ है।” फिर कुछ देर मौन रहकर धीरे-धीरे कहने लगी, “प्रात:काल होने पर उठ आयी। भाग्य से कुम्भकर्ण की निद्रा जल्दी नहीं टूटती वरना लोभवश जगा ही तो डाला था! तब दरबान को भी साथ लेकर गंगा नहाने गयी, मालूम पड़ा, मानो माता ने समस्त ताप धो डाला है। घर आकर जब पूजा करने बैठी तब जाना कि केवल तुम अकेले ही नहीं लौट आये हो, साथ ही आ गया है मेरी पूजा का मन्त्र, आ गये हैं मेरे इष्ट देवता और गुरुदेव, और आ गये हैं मेरे श्रावण के मेघ। आज भी मेरी आँखों से जल बहने लगा, किन्तु वे अश्रु हृदय को मसोसकर निचोड़े हुए नहीं थे, बल्कि वह तो आनन्द से उमड़े हुए झरने की धारा थी जिसने मुझे सब ओर से विभोर कर दिया। जाऊँ, कुछ फल ले आऊँ? पास बैठकर अपने हाथ से तराशकर तुम्हें फल खिलाये हुए बहुत दिन हो गये। जाऊँ, क्यों?”

“अच्छा जाओ।”

राजलक्ष्मी वैसी ही द्रुत गति से चली गयी। मैंने एक बार फिर साँस छोड़कर कहा, “कहाँ यह और कहाँ कमललता!”

न जाने किसने जन्म के समय हजारों नामों में से चुनकर इसका राजलक्ष्मी नाम रक्खा था!

दोनों जिस समय कालीघाट से लौटे उस समय रात के नौ बज गये थे। राजलक्ष्मी स्नान कर और कपड़े बदलकर सहज भाव से पास आ बैठी। मैंने कहा, “राजसी पोशाक उतर गयी। चलो, जान बची।”

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, वह मेरे लिए राजसी पोशाक ही है, क्योंकि मेरे राजा ने जो दी है। जब मरूँ तब वही मुझे पहना देने के लिए कहना।”

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