ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“ऐसा ही होगा। पर तुम क्या आज सारा दिन स्वप्न देखने में ही बिता दोगी? अब कुछ खा लो।”
“खाती हूँ।”
“मैं रतन से कह देता हूँ कि तुम्हारा खाना रसोइए के हाथ यहीं भिजवा दे।”
“यहीं? जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन मैं तुम्हारे सामने बैठकर कैसे खाऊँगी? कभी खाते देखा है?”
“देखा तो नहीं है, पर देखने में बुराई क्या है?”
“भला ऐसा भी कहीं होता है! स्त्रियों का राक्षसी खाना तुम लोगों को हम देखने ही क्यों देंगी?”
“देखो लक्ष्मी, तुम्हारी यह चाल आज नहीं चलेगी। तुम्हें अकारण ही उपवास नहीं करने दूँगा। खाओगी नहीं तो मैं तुमसे नहीं बोलूँगा।”
“न बोलना।”
“मैं भी नहीं खाऊँगा।”
राजलक्ष्मी हँस पड़ी, बोली, “इस बार जीत गये, क्योंकि यह मैं न सह सकूँगी।”
रसोइया भोजन दे गया। फल, फूल, मिष्टान्न। नाम-मात्र भोजन कर वह बोली, “रतन ने शिकायत की है कि मैं खाती नहीं हूँ, परन्तु तुम ही बताओ, मैं खाती क्योंकर? हारे हुए मुकद्दमे की अपील करने कलकत्ते आई थी। रतन नित्य तुम्हारे यहाँ से वापिस आता था पर भय के मारे कुछ पूछने का साहस ही मेरा न होता था, क्योंकि, वह कहीं यह न कह दे कि मुलाकात हुई थी पर बाबू आये नहीं। जो दुर्व्यवहार किया है, उसके कारण मेरे पास तो कहने के लिए कुछ है नहीं।”
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