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श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


दूसरे दिन, और दिनान्त के सब काम निबटाकर, राजलक्ष्मी मेरे पास आ बैठी। कहने लगी, “कमललता की कहानी सुनूँगी, सुनाओ।” जो कुछ जानता था, सब सुना दिया, केवल अपने सम्बन्ध में कुछ कुछ छोड़ दिया, क्योंकि उससे गलतफहमी होने की सम्भावना थी।

मन लगाकर आद्योपान्त सारी बातें सुनकर उसने धीरे से कहा, “यतीन की मृत्यु ही उसे सबसे अधिक चुभी है, उसी के दोष से वह मारा गया।”

“उसका क्या दोष?”

“दोष कैसे नहीं है? अपना कलंक छुपाने के लिए उसी से आत्महत्या करने में सहायता माँगी थी। उस दिन तो यतीन स्वीकार नहीं कर सका, किन्तु एक दिन अपना कलंक छिपाने के लिए उसे भी वही मार्ग सबसे पहले नजर आया। ऐसा ही होता है, इसीलिए पाप में सहायता के लिए किसी मित्र को नहीं बुलाना चाहिए। इससे एक का प्रायश्चित दूसरे के गले पड़ जाता है। वह स्वयं तो बच गयी, किन्तु उसके स्नेह का धन मर गया।”

“युक्ति कुछ समझ में नहीं आई, लक्ष्मी।”

“तुम कैसे समझोगे? समझा है कमललता ने और तुम्हारी राजलक्ष्मी ने।”

“ओ:-ऐसा है!”

“नहीं तो क्या। भला कहो तो हमारा जीवन कितना-सा है, उसका क्या मूल्य है, जब हम देखती हैं तुम्हारी तरफ...।”

“किन्तु कल तुमने ही तो कहा था कि मेरे मन की सब कालिख साफ हो गयी और अब कोई ग्लानि नहीं है, तो वह क्या झूठ था?”

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