ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“झूठ ही तो था। कालिख तो मरने पर ही पुछेगी, उससे पहले नहीं। मरना भी चाहा था, केवल तुम्हारे ही कारण न मर सकी।”
“सब मालूम है, पर तुम यदि इसे लेकर बारम्बार दु:ख दोगी तो मैं इस तरह भाग जाऊँगा कि फिर ढूँढ़ने पर भी न पाओगी।”
राजलक्ष्मी ने भयभीत होकर मेरा हाथ पकड़ लिया और बिल्कुल छाती के पास खिसक आयी। बोली, “अब ऐसी बात कभी मुँह पर भी नहीं लाना। तुम सब कुछ कर सकते हो, तुम्हारी निष्ठुरता कहीं भी बाधा नहीं मानती।”
“तब कहो कि अब ऐसी बात न कहोगी?”
“नहीं कहूँगी।”
“बोलो, सोचूँगी भी नहीं।”
“तुम भी कहो कि अब मुझे छोड़कर कभी नहीं जाओगे।”
“मैं तो कभी गया नहीं लक्ष्मी, और जब कभी गया हूँ तब केवल इसीलिए कि तुमने मुझे नहीं चाहा।”
“वह तुम्हारी लक्ष्मी नहीं, कोई और होगी।”
“उस किसी और से ही तो आज भय लगता है।”
“नहीं, अब उससे मत डरो, वह राक्षसी मर चुकी है।”
यह कहकर उसने मेरे उसी हाथ को जोर से पकड़ लिया और चुपचाप बैठी रही।
पाँच-छह मिनट तक इसी प्रकार बैठे रहने के पश्चात उसने दूसरी चर्चा छेड़ दी, कहा, “तुम क्या सचमुच बर्मा जाओगे?”
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