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श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


“हाँ, सचमुच ही जाऊँगा।”

“जाकर क्या करोगे- नौकरी? पर हम लोग तो सिर्फ दो ही प्राणी हैं- हम लोगों की आवश्यकताएँ ही कितनी हैं?”

“किन्तु उन कितनी का भी तो प्रबन्ध करना होगा?”

“वह भगवान दे देंगे। पर तुम नौकरी नहीं करने पाओगे, यह तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है।”

“नहीं कर सकूँगा तो वापिस चला आऊँगा।”

“जानती हूँ, वापिस तो आना ही पड़ेगा, केवल मुझको कष्ट देने के लिए हठपूर्वक इतनी दूर ले जाना चाहते हो।”

“चाहो तो कष्ट नहीं भी करो।”

राजलक्ष्मी ने एक क्रुद्ध कटाक्ष फेंककर कहा, “देखो, चालाकी मत करो!”

मैंने कहा, “चालाकी नहीं करता, चलने से तुम्हें वास्तव में कष्ट होगा। भोजन पकाना, बर्तन माँजना, घर-बार साफ करना, बिछौने बिछाना...।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “तब दाई-नौकर क्या करेंगे?”

“दाई-नौकर कहाँ? उनके लिए रुपये कहाँ हैं?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छा न सही। तुम चाहे कितना ही भय दिखाओ, लेकिन मैं तो चलूँगी ही।”

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