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श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


“तो चलो। केवल मैं और तुम, काम के मारे न मिलेगा झगड़ा करने का अवसर और न मिलेगी पूजा तथा उपवास करने की फुर्सत।”

“न मिलने दो। मैं क्या काम से डरती हूँ?”

“सच है; डरती नहीं हो, पर तुम कर न सकोगी। दो दिन बाद ही वापिस आने के लिए आफत मचाना शुरू कर दोगी।”

“इसमें भी क्या कोई डर है? साथ लेकर जाऊँगी तथा साथ ही वापिस ले आऊँगी। कम से कम तुम्हें छोड़कर तो न आना होगा।” कहकर वह एक क्षण के लिए कुछ सोचने लगी, फिर बोली, “हाँ, यह ठीक रहेगा। एक छोटे से घर में केवल हम और तुम रहेंगे, न कोई दास होगा न दासी। जो खाने को दूँगी वही खाओगे, जो पहनने को दूँगी वही पहनोगे। नहीं? तुम देखना, मेरी आने की शायद इच्छा ही न होगी।”

सहसा वह मेरी गोदी में अपना सिर रखकर लेट गयी और बहुत देर तक आँखें बन्द कर निस्तब्ध पड़ी रही।

“क्या सोच रही हो?”

राजलक्ष्मी नेत्र खोलकर किंचित् मुस्कराई और बोली, “हम लोग कब चलेंगे?”

“इस मकान की कुछ व्यवस्था कर दो, फिर जिस दिन चाहो प्रस्थान कर दो।”

उसने सिर हिलाकर स्वीकृति जताई और फिर नेत्र मूँद लिये।

“फिर क्या सोच रही हो?”

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