ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“हाँ, है तो।”
“पर मेरे मन में नहीं है। मैं निष्पाप निष्कलंक हूँ।”
“हाँ, युधिष्ठिर!”
कमललता भी हँसी, किन्तु उसके बोलने की भंगिमा पर। वह शायद ठीक-ठीक कुछ समझ न सकी, सिर्फ उलझन में पड़ गयी। कारण, उस दिन भी तो किसी रमणी से अपने सम्बन्ध का मैंने कोई आभास नहीं दिया था। और देता भी किस तरह? देने के लिए उस दिन था ही क्या?
कमललता ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है बहिन?”
“मेरा नाम राजलक्ष्मी है, और ये पहले का अंश छोड़कर कहते हैं, केवल 'लक्ष्मी'। मैं इन्हें 'ए जी', 'ओ जी', 'सुनो' कहकर पुकारती थी। किन्तु अब 'नये गुसाईं' कहकर पुकारने के लिए कहा है। कहते हैं इससे तृप्ति होगी।”
पद्मा ने सहसा ताली बजाकर कहा, “मैं समझ गयी।”
कमललता ने उसे धमकाकर कहा, “जलमुँही के भारी बुद्धि है न। बता तो, क्या समझी?”
“निश्चय समझ गयी। बताऊँ?”
“बताना नहीं होगा, जा।” कहकर उसने स्नेह के साथ राजलक्ष्मी का हाथ पकड़कर कहा, “बातों ही बातों में देर हो रही है बहन, धूप में मुँह सूख गया है। जानती हूँ, कुछ खाकर भी नहीं आयी। चलो, हाथ-मुँह धोकर देवता को प्रणाम करो, फिर सभी मिलकर प्रसाद पाएं। तुम भी चलो गुसाईं- कहकर वह उसका हाथ पकड़कर मन्दिर की ओर खींच ले गयी।
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