ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
पद्मा खुश होकर बोली, “इसी से तुम दोनों देखने में एक से लगते हो। दोनों ही ऊँचे और पतले, केवल तुम गोरी हो और नये गुसाईं साँवले।”
राजलक्ष्मी ने गम्भीर होकर कहा, “हम लोगों के ठीक एक से हुए बिना काम कैसे चल सकता पद्मा?”
“अरी मैया! तुम्हें तो मेरा नाम भी मालूम है। नये गुसाईं ने बता दिया है शायद?”
“बताया है, तभी तो तुम लोगों को देखने आयीं। मैंने कहा, “अकेले क्यों जाओगे? मुझे भी साथ ले चलो। तुमसे तो मुझे कोई डर नहीं, एक साथ देखकर कोई कलंक भी न लगायेगा और यदि लगाया भी तो हर्ज क्या है, विष नीलकण्ठ के गले में ही रह जायेगा, पेट में नहीं उतरेगा।”
मैं अब चुप न रह सका। औरतों का यह किस प्रकार का मजाक है, यह वे ही जानें। क्रोधित होकर कहा, “बताओ, लड़कियों के साथ क्यों झूठा मजाक कर रही हो?”
राजलक्ष्मी ने भले मानुस की तरह कहा, “सच्चा मजाक न हो तुम्हीं बता दो। जो कुछ जानती हूँ, सरल मन से कह रही हूँ, इससे तुम नाराज क्यों होते हो?”
उसका गाम्भीर्य देखकर गुस्से होकर भी मैं हँस पड़ा, “हाँ, सरल मन से कह रही हो! कमललता, संसार में इतनी बड़ी शैतान और वाचाल तुम्हें तलाश करने पर भी दूसरी नहीं मिलेगी। इसका कुछ न कुछ मतलब है, इसकी सब बातों पर सहज ही विश्वास न कर लेना।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “निन्दा क्यों करते हो गुसाईं? तब तो मेरे सम्बन्ध में तुम्हारे मन में ही कोई मतलब है।”
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