ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कमललता, पद्मा, लक्ष्मी, सरस्वती तथा और भी कई ने आकर हम लोगों की सादर अभ्यर्थना की। कमललता ने भरे गले से कहा, “नये गुसाईं, तुम इतनी जल्दी फिर हम लोगों को दिखाई दोगे, ऐसी आशा नहीं की थी।”
राजलक्ष्मी ने इस प्रकार बातचीत की, मानो न जाने कब का परिचय है। कहा, “कमललता जीजी, इन कई दिनों से इनकी जबान पर केवल तुम्हारी ही चर्चा थी। इससे पहले ही आना चाहते थे, पर मेरे कारण ही ऐसा न हो सका। इसमें मेरा ही दोष है।”
कमललता का मुख कुछ क्षण के लिए लाल हो गया, पद्मा हँस पड़ी और उसने आँखें फिरा लीं।
राजलक्ष्मी की वेश-भूषा तथा चेहरे से सभी ने उसे भद्र परिवार का समझा, केवल मेरे साथ उसका क्या सम्बन्ध है, यह निस्सन्देह कोई न जान सका। परिचय के लिए सभी उत्सुक हो रहे। राजलक्ष्मी की आँखों से कुछ भी नहीं छिपता। उसने कहा, “कमललता दीदी, मुझे पहिचान नहीं सकीं?”
कमललता ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं।”
“वृन्दावन में कभी नहीं देखा?”
कमललता भी निर्बोध नहीं है, उसने परिहास समझ लिया और हँसकर कहा, “याद तो नहीं पड़ रहा बहन।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “याद न पड़ना ही अच्छा है जीजी। मैं इसी देश की लड़की हूँ, वृन्दावन को कभी नहीं गयी।” कहकर वह हँस पड़ी। फिर लक्ष्मी, सरस्वती तथा अन्य सबके चले जाने के बाद मुझे दिखाकर कहा, “हम लोग एक ही गाँव में एक ही गुरु की पाठशाला में पढ़ते थे, दोनों में ऐसा प्रेम था जैसे भाई-बहन हों। मैं मुहल्ले के रिश्ते से 'दादा' कहकर पुकारती थी और ये मुझे बहन की तरह प्यार करते। शरीर पर कभी हाथ तक नहीं लगाया।” फिर मेरी ओर देखकर कहा, “क्यों जी, जो कुछ कह रही हूँ सच है न?”
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