ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“नहीं, किन्तु तुमने कैसे जाना?”
“चालान करते समय विधाता ने ही कान में कह दिया था। पर तुम चाय पी चुके? देर करोगे तो आज भी जाना नहीं होगा।”
“न सही।”
“पर बतलाओ, क्यों?”
“वहाँ भीड़ में शायद तुम्हें ढूँढ़ न पाऊँगा।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “मुझे तो तुम पा लोगे, पर मैं तुम्हें खोजकर पा जाऊँ तो गनीमत है।”
मैंने कहा, “यह भी तो ठीक नहीं है।”
उसने हँसकर कहा, “नहीं, ऐसा नहीं होगा। तुम्हें चलना ही पड़ेगा। सुना है कि 'नये गुसाईं' का वहाँ एक अलग कमरा है, मैं जाते ही उसका कुण्डा तोड़कर रख दूँगी। कोई भय नहीं, ढूँढ़ना नहीं होगा- दासी तुम्हें यों ही मिल जायेगी।”
“तो चलो।”
जिस समय हम लोग मठ में पहुँचे उस समय देवता की मध्याह्नकालीन पूजा समाप्त ही हुई थी। बिना बुलाए बिना सूचना के अकस्मात् इतने प्राणी हाजिर हो गये, किन्तु फिर भी, उन लोगों की इतनी खुशी हुई कि कह नहीं सकता। बड़े गुसाईं आश्रम में नहीं हैं, गुरुदेव से मिलने फिर नवद्वीप गये हैं, किन्तु इस बीच ही दो वैरागियों ने आकर मेरे कमरे में अड्डा जमा लिया है।
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