ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
वह गा रही थी-
एके पद-पंकज पंके विभूषित, कंटक जर जर मेल,
तुया दरसन आशे कछु नाहिं, जानलु, चिरदुख अब दूर गेल।
तोहारि मुरली जब श्रवणे प्रवेराल, छोड़नु गृहसुखआस,
पंथक दुख तृणहुं करि न गणनु कहतँ ह गोविन्ददास॥
बड़े गुसाईंजी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी, वे आवेग और आनन्द की प्रेरणा से उठ खड़े हुए। मूर्ति से कण्ठ से मल्लिका की माला उतारकर उन्होंने राजलक्ष्मी के गले में पहना दी और कहा, “प्रार्थना करता हूँ, तुम्हारे सब अकल्याण दूर हो जाँय।”
राजलक्ष्मी ने झुककर नमस्कार किया, फिर उठकर मेरे पास आयीं, सबके सामने पैरों की धूल माथे पर लगाई और आहिस्ते से कहा, “यह माला रक्खी है, बख्शीश का डर न दिखाया होता तो यहीं तुम्हारे गले में पहना देती।” कहकर तुरन्त ही वह चली गयी।
गाने की बैठक खत्म हुई। ऐसा लगा मानो आज जीवन सार्थक हो गया।
क्रमश: प्रसाद-वितरण का आयोजन शुरू हुआ। अन्धकार में उसे जरा ओट में बुलाकर कहा, “वह माला रख दो। यहाँ नहीं, घर लौटकर तुम्हारे हाथों से ही पहिनूँगा।”
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