ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने कहा, “यहाँ ठाकुर-घर में पहिन लोगे तो फिर उतार नहीं सकोगे- शायद इसी बात का डर है?”
“ओह, कैसे दानी हो! पर वह तो तुम्हारी ही रहती जी।”
“तुम्हें आज असंख्य धन्यवाद।”
“क्यों, बताओ तो सही?”
आज खयाल हो रहा है, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। रूप, गुण, रस, विद्या, स्नेह और सौजन्य से परिपूर्ण जो धन मुझे बिना याचना के ही मिला है, उसकी संसार में तुलना नहीं है। अपनी अयोग्यता के मारे शर्म आती है लक्ष्मी- तुम्हारे निकट मैं सचमुच बहुत कृतज्ञ हूँ।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “इस बार मैं सचमुच नाराज हो जाऊँगी।”
“सो हो जाओ। सोचता हूँ कि इस ऐश्वर्य को मैं कहाँ रक्खूँगा?”
“क्यों, चोरी जाने का डर है?”
“नहीं, ऐसा आदमी तो कोई नजर नहीं आता लक्ष्मी। चोरी करके तुम्हें रख छोड़ने लायक बड़ी जगह वह बेचारा कहाँ पावेगा?”
राजलक्ष्मी ने उत्तर नहीं दिया, मेरा हाथ खींचकर थोड़ी देर तक हृदय के समीप रख छोड़ा। फिर कहा, “अंधकार में ऐसे आमने-सामने खड़े रहेंगे तो लोग हँसेंगे नहीं? पर सोच रही हूँ कि रात को तुम्हें कहाँ सुलाऊँगी- जगह तो है ही नहीं।”
“रहने दो, कहीं भी सोकर रात काट दूँगा।”
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