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श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


“सो तो काट दोगे, पर तबियत तो तुम्हारी अच्छी है नहीं, बीमार पड़ सकते हो।”

“तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं, ये लोग कुछ न कुछ करेंगे ही।”

राजलक्ष्मी ने चिन्ता के स्वर में कहा, “सब कुछ देख तो रही हूँ, पता नहीं क्या व्यवस्था करेंगे! पर मैं फिक्र न करूँ और वे करें? चलो, थोड़ा-सा खाकर सो जाना।

लोगों की भीड़ के कारण सोने को सचमुच ही जगह न थी। उस रात को किसी तरह एक खुले बरामदे में मसहरी लगाकर मेरे सोने की व्यवस्था की गयी। त्रुटियों के कारण राजलक्ष्मी अशान्ति बोध करने लगी, शायद रात को बीच-बीच में आकर देख भी गयी, पर मेरी नींद में कोई बाधा नहीं पड़ी।

दूसरे दिन बिछौने से उठने पर देखा कि दोनों बहुत सारे फूल तोड़कर लौट आयी हैं। कमललता ने आज मेरे बदले राजलक्ष्मी को ही साथी बना लिया था। यह नहीं जानता था कि वहाँ अकेले में उनमें क्या-क्या बातें हुईं, पर आज उन दोनों का चेहरा देखकर मुझे बहुत सन्तोष हुआ। मानो दोनों बहुत पुरानी सखियाँ हैं, न जाने कितने समय की आत्मीय। कल दोनों एक साथ एक ही शय्या पर सोई थीं- जाति के विचार ने वहाँ किसी तरह का रोड़ा नहीं अटकाया। इस बारे में कि एक-दूसरे के हाथ का नहीं खातीं, कमललता ने मुझसे हँसकर कहा, “तुम कुछ खयाल न करना गुसाईं, इसका प्रबन्ध हमारा हो गया है। अगली बार, मैं बड़ी बहिन होकर पैदा होऊँगी और इसके दोनों कान अच्छी तरह से मल दूँगी।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “इसके बदले मैंने भी एक शर्त करा ली है गुसाईं, कि अगर मैं मर जाऊँ तो इसे वैष्णवीपन से इस्तीफा देकर तुम्हारी सेवा में नियुक्त होना पड़ेगा। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि तुम्हारे बिना मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी और तब भूत बनकर दीदी के सिर पर चढ़ी फिरूँगी- उसी सिन्दबाद जहाजी के कन्धों पर बूढ़े दैत्य की तरह-कन्धों पर बैठे-बैठे इसके द्वारा सब काम करा लूँगी, तब छोड़ूंगी।”

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