ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
झाँककर देखा कि भीड़ के बीच एक हाथ देखने वाला पण्डित बैठा हुआ है- पंचांग, पोथी, खड़िया, स्लेट, पेन्सिल इत्यादि गणना के विविध उपकरण उसके पास हैं। सबसे पहले पद्मा की नजर ही मुझ पर पड़ी, वह चिल्ला उठी, “नये गुसाईं आ गये!”
कमललता ने कहा, “तब ही जान गयी थी कि गौहर गुसाईं तुम्हें यों ही नहीं छोड़ देंगे, उन्होंने क्या खिलाया?”
राजलक्ष्मी ने उसका मुँह दबा दिया, “रहने दो दीदी, यह मत पूछो।”
कमललता ने उसका हाथ हटाते हुए कहा, “धूप में मुँह सूख गया है, रास्ते की धूल-मिट्टी सिर पर जम गयी है- नहाना-धोना हो गया क्या?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तेल तो छूते नहीं, इसलिए नहा-धो लेने पर भी पता नहीं चलेगा दीदी।”
“इसमें शक नहीं कि नवीन ने हर प्रकार की कोशिश की, पर मैंने स्वीकार नहीं किया, बिना नहाये खाये ही वापस लौट आया हूँ।”
राजलक्ष्मी ने बड़े आनन्द के साथ कहा, “ज्योतिषी ने मेरा हाथ देखकर कहा है कि मैं राजरानी होऊँगी।”
“क्या दिया?'
पद्मा ने कह दिया, “पाँच रुपया। राजलक्ष्मी दीदी के आँचल में बँधे थे।”
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