ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“पर उम्र में तो यही बड़े हैं, राजू?”
“ओ: बहुत बड़े हैं! कुल पाँच-छह साल। मेरी उम्र तब आठ-नौ साल की थी। एक दिन गले में माला पहनाकर मैंने मन-ही-मन कहा, आज से तुम मेरे दूल्हा हुए! दूल्हा! दूल्हा!” कहकर मुझे इशारे से दिखाते हुए कहा, “पर ये देवता उसी वक्त मेरी माला को वहीं खड़े-खड़े खा गये!”
कमललता ने आश्चर्य से पूछा, “फूलों की माला किस तरह खा गये?”
मैंने कहा, “फूलों की माला नहीं, पके हुए, करोदों की माला थी। जिसे दोगी वही खा जायेगा।”
कमललता हँसने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा, “पर वहीं से मेरी दुर्गति शुरू हो गयी। इन्हें खो बैठी। इसके बाद की बातें मत जानना चाहो दीदी- पर लोग जो कल्पना करते हैं सो बात भी नहीं है- वे तो न जाने क्या-क्या सोचते हैं। इसके बाद बहुत दिनों तक रोती-पीटती भटकती फिरी और तलाश करती रही। आखिर भगवान की दया हुई, और जैसे एक दिन खुद ही देकर एकाएक छीन लिया था, वैसे ही अकस्मात् एक दिन हाथोंहाथ लौटा भी दिया।” कहकर उसने भगवान के उद्देश्य से प्रणाम कर लिया।
कमललता ने कहा, “उन्हीं भगवान की माला बड़े गुसाईं ने भेजी है, आज जाने के दिन तुम दोनों एक-दूसरे को पहना दो।”
राजलक्ष्मी ने हाथ जोड़कर कहा, “इनकी इच्छा ये जानें, पर इसके लिए मुझे आदेश न करो। बचपन की मेरी वह लाल रंग की माला आज भी आँखें बन्द करने पर इनके उसी किशोर गले में झूलती हुई दिखाई देती है। भगवान की दी हुई मेरी वही माला हमेशा बनी रहे दीदी।”
|