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श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


रतन पीछे खड़ा था, भाग गया।

राजलक्ष्मी ने कहा, “इनकी बातें तुम न सुनो गुसाईं, मुझसे ये दिन-रात ईर्ष्या करते हैं।” फिर मेरी ओर देखकर कहा, “इस बार जब आऊँगी तो इस रोगी और अरसिक आदमी को कमरे में ताला लगाकर बन्द कर आऊँगी, इसके मारे मुझे कहीं चैन नहीं मिलती!”

बड़े गुसाईं ने कहा, “नहीं आनन्दमयी, नहीं बनेगा, छोड़कर नहीं आ सकोगी।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “अवश्य आ सकूँगी। बीच-बीच में मेरी ऐसी इच्छा होती है गुसाईं, कि मैं जल्दी मर जाऊँ।”

बड़े गुसाईं जी बोले, “यह इच्छा तो वृन्दावन में एक दिन उनके मुँह से भी निकली थी बहिन, पर वैसा हो नहीं सका। हाँ आनन्दमयी, तुम्हें क्या वह बात याद नहीं?-

सखी, दे जाउँ मैं किसको कन्हैयालाल की सेवा।

वे जानें क्या बताओ तो...”

कहते-कहते वे मानो अन्यमनस्क हो गये। बोले, 'सच्चे प्रेम के बारे में हम लोग कितना-सा जानते हैं? केवल छलना में अपने को भुलाये रखते हैं। पर तुम जान सकी हो बहिन, इसीलिए कहता हूँ कि तुम जिस दिन यह प्रेम श्रीकृष्ण को अर्पण कर दोगी, आनन्दमयी...”

सुनकर राजलक्ष्मी मानो सिहर उठी, व्यस्त होकर बाधा देते हुए बोली, “ऐसा आशीर्वाद मत दो गुसाईं, मेरे भाग्य में ऐसा न घटे। बल्कि यह आशीर्वाद दो कि इसी तरह हँसते-खेलते इनके समक्ष ही एक दिन मर जाऊँ।”

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