ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कमललता ने बात सँभालते हुए कहा, “बड़े गुसाईं तुम्हारे प्रेम की बात ही कर रहे हैं राजू, और कुछ नहीं।”
मैंने भी समझ लिया कि अन्य भावों के भावुक द्वारिकादास की विचार-धारा सहसा एक और पथ पर चली गयी थी, बस।
राजलक्ष्मी ने शुष्क मुँह से कहा, “एक तो यह शरीर और फिर एक न एक रोग साथ लगा ही रहता है- एकांगी आदमी, किसी की बात सुनना नहीं चाहते-मैं रात-दिन किस तरह डरी-सहमी रहती हूँ दीदी, किसे बताऊँ?”
अब तो मैं मन-ही-मन उद्विग्न हो उठा। जाते वक्त बातों-ही-बातों में कहाँ का पानी कहाँ पहुँच गया, इसका ठिकाना ही नहीं। मैं जानता हूँ कि मुझे अवहेलना के साथ बिदा करने की मर्मान्तक आत्मग्लानि लेकर ही इस बार राजलक्ष्मी काशी से आई है और सर्व प्रकार के हास-परिहास के अन्तराल में न जाने किस अनजान कठिन दण्ड की आशंका उसके मन में बनी रहती है जो किसी तरह मिटना ही नहीं चाहती। इसी को शान्त करने के अभिप्राय से मैं हँसकर बोला, “लोगों के आगे मेरे दुबले-पुतले शरीर की तुम चाहे जितनी निन्दा क्यों न करो लक्ष्मी, पर इस शरीर का विनाश नहीं है। तुम्हारे पहले मरे बिना मैं मरने का नहीं, यह निश्चित है।”
उसने बात खत्म भी न करने दी, धप से मेरा हाथ पकड़कर कहा, “तब इन सबके सामने मुझे छूकर तीन बार कसम खाओ। कहो कि यह बात कभी झूठ न होगी!” कहते-कहते उद्गत आँसू उसकी दोनों आँखों से बह पड़े।
सबके-सब अवाक् हो रहे। लज्जा के मारे उसने मेरा हाथ जल्दी-से छोड़ दिया और जबरदस्ती हँसकर कहा, “इस जलमुँहे ज्योतिषी ने झूठमूठ ही मुझे इतना डरा दिया कि...”
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