ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
यह बात भी वह खत्म न कर सकी, और चेहरे की हँसी तथा लज्जा की बाधा के होते हुए भी उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें दोनों गालों पर ढुलक पड़ीं।
एक बार फिर सबसे एक-एक करके विदा ली गयी। बड़े गुसाईं ने वचन दिया कि इस बार कलकत्ते जाने पर वह हमारे यहाँ भी पधारेंगे और पद्मा ने कभी शहर नहीं देखा है, इसलिए वे भी साथ में आयेगी।
स्टेशन पर पहुँचते ही सबसे पहले वही 'जुलमुँहा' ज्योतिषी नजर आया। प्लेटफार्म पर कम्बल बिछाकर बड़ी शान से बैठा है और उसके आसपास काफी लोग जमा हो गये हैं।
पूछा, “यह भी साथ चलेगा क्या?”
राजलक्ष्मी ने दूसरी ओर देखकर अपनी सलज्ज हँसी छिपा ली। पर सिर हिलाकर बताया कि “हाँ, जायेगा।”
कहा, “नहीं, नहीं जायेगा।”
“लेकिन जाने से कुछ भला न होगा तो बुरा भी तो न होगा। साथ चलने दो न?”
“नहीं। भला-बुरा कुछ भी हो, वह साथ नहीं चलेगा। उसे जो कुछ देना हो दे- दिलाकर यहीं से बिदा कर दो। ग्रह शान्त करने की क्षमता और साधुता अगर उसमें हो भी, तो तुम्हारी आँखों की आड़ में ही वह करे।”
“तो यही कह देती हूँ,” कहकर रतन को उसे बुलाने के लिए भेज दिया। नहीं जानता कि उसे क्या दिया, पर कई बार माथा हिलाकर और अनेक आशीर्वाद देकर हँसते हुए ही उसने बिदा ली।
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