ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
थोड़ी देर बाद ही ट्रेन आकर हाजिर हुई और हम कलकत्ते को चल दिये।
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राजलक्ष्मी के एक प्रश्न के उत्तर में रुपयों की प्राप्ति का किस्सा बताना पड़ा। “हमारे बर्मा ऑफिस से एक ऊँचे दर्जे के साहब बने घुड़दौड़ में सर्वस्व गँवाकर मेरे इकट्ठे किये हुए रुपये उधार ले लिये थे और खुद ही उन्होंने यह शर्त की थी कि सिर्फ सूद ही नहीं, बल्कि अगर अच्छे दिन आए तो मुनाफे का भी आधा हिस्सा देंगे। इस बार कलकत्ते लौटकर रुपये माँगने पर उन्होंने कर्ज का चौगुना रुपया भेज दिया। बस यही मेरी पूँजी है।”
“वह कितनी है?”
“मेरे लिए तो बहुत है, पर तुम्हारे निकट अतिशय तुच्छ।”
“सुनूँ तो कितनी?”
“सात-आठ हजार!”
“वह मुझे देनी होगी।”
डर से कहा, “यह कैसी बात है! लक्ष्मी तो दान ही करती हैं, वे हाथ भी फैलाती हैं क्या?”
राजलक्ष्मी ने सहास्य कहा, “लक्ष्मी अपव्यय सहन नहीं करतीं और अयोग्य समझकर संन्यासी फकीरों का विश्वास नहीं करतीं। लाओ रुपये।”
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