ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“क्या करोगी?”
“अपने खाने-कपड़े की व्यवस्था करूँगी। अब से यही होगा मेरे जीवित रहने का मूलधन।”
“पर इतने-से मूलधन से काम कैसे चलेगा? तुम्हारे झुण्ड के झुण्ड नौकर-नौकरानियों की पन्द्रह दिन की तनख्वाह भी तो इससे पूरी नहीं होगी। इसके अलावा गुरु-पुरोहित हैं, तैंतीस करोड़ देवता हैं, बहुत-सी विधवाओं का भरण-पोषण है- उनका क्या उपाय होगा?”
“इनके लिए फिक्र मत करो, उनका मुँह बन्द न होगा। मैं अपने ही भरण-पोषण की बात सोच रही हूँ। समझे?”
कहा, “समझ गया। अब से अपने को एक माया में भुलाये रखना चाहती हो- यही न?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं, सो नहीं। वह सब रुपया दूसरे कामों के लिए है। मेरे भविष्य की पूँजी वही होगा, जो अब से तुम्हारे सामने हाथ पसारने पर मिलेगा। उसी से भरपेट खाऊँगी, नहीं तो उपवास करूँगी।”
“तो तुम्हारे भाग्य से यही लिखा है!”
“क्या लिखा है- उपवास?” यह कहकर उसने हँसते हुए कहा, “तुम सोच रहे हो कि साधारण-सी पूँजी है, पर वह विद्या मैं जानती हूँ कि साधारण ही किस तरह बढ़ाया जाता है। एक दिन समझोगे कि मेरे धन के बारे में तुम जो सन्देह करते हो वह सच नहीं है।”
“यह बात तुमने इतने दिनों से क्यों नहीं कही?”
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