ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“इसीलिए नहीं कही कि विश्वास नहीं करोगे। मेरा रुपया तुम घृणा के मारे छूते तक नहीं, पर तुम्हारी घृणा से मेरी छाती फट जाती है।”
व्यथित होकर कहा, “अचानक आज ये सब बातें क्यों कह रही हो लक्ष्मी?”
राजलक्ष्मी क्षण-भर तक मेरे चेहरे की ओर देखती रही, फिर बोली, “यह बात तुम्हें आज एकाएक खटकी है पर मेरी तो रात-दिन यही भावना रही है। तुम क्या यह समझते हो कि अधर्म की कमाई से ही मैं देवी-देवताओं की सेवा करती हूँ? उस धन का एक अणु भी अगर तुम्हारी चिकित्सा में मैं खर्च करती, तो तुम्हें बचा सकती? अवश्य ही मेरे पास से भगवान तुम्हें छीन लेते। इस बात को सत्य मानकर तुम कहाँ विश्वास करते हो कि मैं तुम्हारी ही हूँ।”
“विश्वास तो करता हूँ।”
“नहीं, नहीं करते।”
उसके प्रतिवाद का तात्पर्य नहीं समझा। वह कहने लगी, “कमललता से तुम्हारा दो दिन का परिचय है, तो भी तुमने उसकी सारी कहानी मन लगाकर सुनी, उसकी सारी बाधाएँ मिट गयीं- वह मुक्त हो गयी। पर तुमने मुझसे कभी कोई बात नहीं पूछी, कभी तो नहीं कहा कि लक्ष्मी अपने जीवन की सारी घटनाएँ खोलकर बताओ। क्यों नहीं पूछा? तुम विश्वास नहीं करते मेरा और न विश्वास कर सकते हो अपने ऊपर!”
कहा, “उससे भी नहीं पूछा, जानना भी नहीं चाहा। उसने खुद ही जबरदस्ती सुनाई है।”
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