ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने कहा, “तो भी सुनी तो है। वह पराई है इसलिए उसकी कहानी नहीं सुनना चाहते थे, क्योंकि जरूरत नहीं थी। पर मुझसे भी क्या यही कहोगे?”
“नहीं, यह नहीं कहूँगा। पर क्या तुम कमललता की चेली हो? उसने जो कुछ किया है, तुम्हें भी वही करना होगा?”
“इन बातों में मैं भूलने वाली नहीं। मेरी सारी बातें तुम्हें सुननी ही पड़ेंगीं!”
“यह तो बड़ी मुश्किल है। मैं सुनना नहीं चाहता तो भी सुननी पड़ेगी?”
“हाँ, सुननी पड़ेंगीं। तुम्हारा खयाल है कि सुनने पर शायद मुझे प्यार नहीं कर सकोगे, या मुझे बिदा देनी पड़ेगी।”
“तब तुम्हारी विवेचना के अनुसार यह क्या तुच्छ बात है?”
राजलक्ष्मी हँस पड़ी, बोली, “नहीं, यह नहीं होगा, तुम्हें सुनना ही पड़ेगा। तुम पुरुष हो, तुम्हारे मन में क्या इतनी भी शक्ति नहीं है कि उचित मालूम होने पर मुझे दूर कर सको?”
इस अक्षमता को अत्यन्त स्पष्टता से कबूल करते हुए कहा, “तुम जिन शक्तिशाली पुरुषों का उल्लेख करके मुझे अपमानित कर रही हो लक्ष्मी, वे वीर पुरुष हैं- नमस्कार करने योग्य हैं। उनकी पद-धूलि की योग्यता भी मुझमें नहीं। तुम्हें बिदा देकर मैं एक दिन भी नहीं रह सकूँगा, शायद उसी वक्त लौटा लाने के लिए दौड़ पडूँगा और तुमने यदि 'ना' कह दिया तो मेरी दुर्गति की सीमा नहीं रहेगी! अतएव, सब भयावह विषयों की आलोचना बन्द करो।”
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