ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम्हें मालूम है, बचपन में माँ ने मुझे एक मैथिल राजकुमार के हाथों बेच दिया था।”
“हाँ, और एक राजकुमार की ही जबानी यह खबर बहुत दिनों बाद सुनी थी। वह मेरा मित्र था।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “हाँ, वह तुम्हारे मित्र का मित्र था। एक दिन नाराज होकर मैंने माँ को बिदा कर दिया और उन्होंने घर लौटकर मेरी मृत्यु की अफवाह फैला दी। यह खबर तो सुनी थी?”
“हाँ, सुनी थी।”
“सुनकर तुमने क्या सोचा था?”
“सोचा था, आह, बेचारी लक्ष्मी मर गयी।”
“यही? और कुछ नहीं?”
“और यह भी सोचा था कि काशी में मरने के कारण और कुछ न भी हो, सद्गति तो हुई ही। आह!”
राजलक्ष्मी ने नाराज होकर कहा, “जाओ, झूठी आह-आह करके दुख प्रकट करने की जरूरत नहीं। मैं कसम खाकर कह सकती हूँ कि तुमने एक बार भी 'आह' न की थी। लो, मुझे छूकर कहो तो।”
कहा, “इतने दिनों पहले की बातें क्या ठीक-ठीक याद रहती हैं? की थी, यही तो याद आता है।”
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