ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने कहा, “खैर, कष्ट करके इतनी पुरानी बातें अब याद करने की जरूरत कहीं, मैं जानती हूँ।” फिर थोड़ी देर ठहरकर उसने कहा, “और मैं? रोज सुबह विश्वनाथ से रो-रोकर कहती थी, भगवान, मेरे, भाग्य में तुमने यह क्या लिख दिया? तुम्हें साक्षी बनाकर जिसके गले में माला डाली थी क्या इस जीवन में उससे फिर कभी मिलना नहीं होगा? चिरकाल तक क्या ऐसी अपवित्रता में ही दिन बिताने पड़ेंगे? उन दिनों की बातें याद आते ही आज भी आत्महत्या करके मर जाने की इच्छा होती है!”
उसके चेहरे की ओर देखकर क्लेश बोध हुआ, पर यह सोचकर चुप ही रहा कि मेरा निषेध नहीं मानेगी।
इन बातों को उसने कितने दिनों तक मन-ही-मन कितनी तरह से उलट-पलटकर सोचा-विचारा है, उसके अपराध-भाराक्रान्त मन ने नीरव की कितनी मर्मान्तिक वेदना सहन की है, फिर भी इस डर से कि कुछ करते कुछ न हो जाय कुछ जाहिर करने का साहस नहीं किया है, इतने दिनों के बाद अब वह यह शक्ति कमललता से अर्जन कर पाई है। अपनी प्रच्छन्न कलुषिता को अनावृत्त करके वैष्णवी ने मुक्ति पा ली है। राजलक्ष्मी भी आज भय और झूठी मर्यादा की जंजीरों को तोड़कर उसी की तरह सहज होकर खड़ी होना चाहती है, फिर उसके भाग्य में कुछ भी क्यों न हो। यह विद्या उसे कमललता ने दी है। संसार में इस एक व्यक्ति के आगे इस दर्पिता नारी ने सिर झुकाकर अपने दु:ख के समाधान की भिक्षा माँगी है, यह बिना किसी संशय के समझ लेने पर मुझे बहुत सन्तोष मिला।
कुछ देर दोनों ही चुप रहे। सहसा राजलक्ष्मी बोली, “राजपुत्र एकाएक मर गया, पर माँ ने मुझे फिर बेचने का षडयन्त्र रचा...”
“इस बार किसके हाथ?”
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