ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“एक दूसरे राजकुमार के- तुम्हारे उन्हीं मित्ररत्न के साथ-जिनके साथ-साथ शिकार करने के लिए जाते हुए-क्या हुआ, याद नहीं है?”
“शायद नहीं। बहुत पुरानी बात है न। पर उसके बाद?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “यह षडयन्त्र चला नहीं। मैं बोली, “माँ तुम घर जाओ।”
माँ ने कहा, “हजार रुपये जो ले चुकी हूँ?” कहा, “वह रुपया लेकर तुम देश चली जाओ। दलाली का रुपया चाहे जैसे होगा मैं चुका दूँगी। आज रात की गाड़ी से तुम बिदा न होगी माँ, तो कल सबेरे ही मैं अपने को बेचकर गंगा-माता के पानी में डुबा दूँगी। मुझे तो तुम जानती हो माँ, झूठा डर नहीं दिखा रही हूँ।” माँ बिदा हो गयीं। उन्हीं की जुबानी मेरी मौत की खबर सुनकर तुमने दु:ख प्रकट करते हुए कहा, “आह! बेचारी मर गयी।” यह कहकर वह खुद ही कुछ हँसी और बोली, “सच होती तो तुम्हारे मुँह से निकलती हुई यह 'आह' ही मेरे लिए बहुत थी, पर अब जिस दिन सचमुच मरूँगी, उस दिन दो बूँद आँसू जरूर गिराना। कहना कि संसार में अनेक वर-वधुओं ने अनेक मालाएँ बदली हैं, उनके प्रेम से संसार पवित्र-परिपूर्ण हो रहा है, पर तुम्हारी कुलटा राजलक्ष्मी ने अपनी नौ वर्ष की उम्र में उस किशोर वर को एक मन से जितना ज्यादा प्यार किया था, इस संसार में उतना ज्यादा प्यार कभी किसी ने किसी को नहीं किया। कहो कि मेरे कानों में उस वक्त यह बात कहोगे? मैं मरकर भी सुन सकूँगी।”
“यह क्या, तुम तो रो रही हो?”
उसने आँखों के आँसू आँचल से पोंछकर कहा, “तुम क्या सोचते हो कि इस निरुपाय बच्ची पर उसके आत्मीय स्वजनों ने जितना अत्याचार किया है, उसे अन्तर्यामी भगवान देख नहीं सके?- इसका न्याय वे नहीं करेंगे? आँखें बन्द किये रहेंगे?”
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