ई-पुस्तकें >> श्रीकनकधारा स्तोत्र श्रीकनकधारा स्तोत्रआदि शंकराचार्य
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लक्ष्मी आराधना के स्तोत्र
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षम्
आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धम्
इन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥ 3 ॥
जो सम्पूर्ण देवताओं के अधिपति इन्द्र के पद का वैभवविलास देने में समर्थ हैं, मुरारि श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनन्द प्रदान करने वाली हैं, तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती हैं, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नयनों की दृष्टि क्षणभर के लिये मुझपर भी थोड़ी–सी अवश्य पड़े।।3।।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दम्
आनन्दकन्दमनिमेषमनंगतन्त्रम् ।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं
भूत्यै भवेन्मम भुजंगशयांगनायाः॥ 4 ॥
शेषशायी भगवान विष्णुकी धर्मपत्नी श्रीलक्ष्मीजी का नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाला हो, जिसकी पुतली तथा बरौनियाँ अनङ्गके वशीभूत (प्रेमवश) हो, अधखुले किंतु साथ ही निर्निमेष नयनों से देखने वाले आनन्दकन्द श्रीमुकुन्दको अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।
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