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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

अब तुम केवल शिष्य नहीं हो मेरे अनुरूप एक शिक्षक का राष्ट्र निर्माता का कार्यभार तुम्हारे कंधे पर आ गया है। मेरा सम्पूर्ण सहयोग और आशीर्वाद तुम्हारें लिए है।

बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ

तुम्हारा
 विद्या भूषण।

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जागमढ़
५ सितम्बर २०१०

आदरणीय गुरूजी,

प्रणाम।

लगभग पाँच वर्ष पूर्व आपका पत्र मिला था। वह पत्र नहीं मेरे लिए गीता-अमृत था। जब कभी मन कुंठित व व्यथित होता तो आपके पत्र को निकाल कर पढ़ लेता था।सच मानना पत्र पढकर मेरा मन खुशी व उत्साह से भर जाता और मुझे सही दिशा का बोध करा देता। आपने इतना जीवंत व प्रेरणादायक पत्र लिखकर मुझ जैसे पूर्व शिष्य पर जो अनुकम्पा की है वह केवल मेरे लिए नहीं सभी शिष्यों के लिए आशीर्वाद दायक रहेगी। अध्यापक बनने के बाद पिछले पाँच वर्षों में मैंने एक शिक्षक के कार्य को करीब से देखा है। शिक्षण कार्य पहले से दुरूह हो गया है। कक्षाओं में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसको देखने के लिए शिष्य आए, वहाँ सुनने के लिए कुछ भी नवीन व रोचक नहीं है जो छात्र के कानों को आकर्षित करें, वहाँ करने को कुछ नहीं है जो फलदायक या प्रेरणादायक हों। प्रारम्भ में लगभग आधे छात्र स्कूल में प्रवेश करते थे। जो आते वो भी एक दो घण्टी इधर-उधर घूमकर चले जाते। अर्द्धावकाश के समय पूर्णवकाश जैसा वातावरण बन जाता।

छात्रों को जोड़ने के लिए मैंने अभिभावकों के साथ सम्पर्क किया। यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आस-पास से आने वाले गाँवों के कुछ बच्चों का निरन्तर अनुपस्थित रहने से स्कूल से निष्कासन हो गया है परन्तु वे अपने अभिभावकों से प्रतिदिन झूठ-मूठ बोलकर पढ़ाई के लिए खर्च ले आते और सारा दिन बाजार, स्टेशन, सिनेमाघर में घूमकर घर लौट जाते। जब अभिभावकों को यह पता लगा कि स्कूल में उनका नामाकंन भी नहीं है तो उन्होंने दाँतों तले उगली दबा ली।

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