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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

कुछ अभिभावकों को सजग करके, छात्रों को समझाकर, खेलों के माध्यम से बच्चों को स्कूल से जोड़ा गया। नियमित प्रार्थना होने लगी। स्कूल में फूल-पौधे लगाए गये। स्कूल-भवन में पहली बार सफेदी हुई, लैब और पुस्तकालय की धूल झाड़ी गयी। जहाँ गाली-गलोच व फिल्मी गानों का चलन था वहाँ भजन, प्रार्थना और कविताएं होने लगी। धीरे-धीरे वह भवन स्कूल का रूप लेने लगा। इस प्रक्रिया में कई अवसर ऐसे भी आए जब छात्रों, अभिभावकों, अधिकारियों व अध्यापकों के कारण मन कुण्ठित व क्लान्त हुआ। उन जैसा बन जाने का भी मन हुआ परन्तु आपकी प्रेरणा व आशीर्वाद ने मुझे बचा लिया।

शहरों से फैलता हुआ अब ट्यूशन का जाल कस्बों और गाँवों तक फैल गया है। इस विद्यालय के विज्ञान और गणित अध्यापक खूब ट्यूशन करते हैं। स्कूल से अधिक परिश्रम वे घर की कक्षाओं में करते हैं। अंग्रेजी का अध्यापक होने के नाते आरम्भ में कुछ विद्यार्थी मेरे पास भी ट्यूशन रखने आए थे। मैंने तो स्पष्ट कह दिया, स्कूल में मुझसे कुछ भी समझ लो, घर पर भी समझने आ जाओ परन्तु ट्यूशन के रूप में नहीं। गुरू जी आपने ही बताया था कि ट्यूशन करने वाले अच्छे से अच्छे अध्यापक में भी कमजोरी आ जाती है। आपका अनुकरण करते हुए मैंने भी ट्यूशन न करने का संकल्प किया हुआ है। जो अध्यापक ट्यूशन नहीं करते वे दूसरे पार्ट टाइम काम करते हैं। सामाजिक ज्ञान का अध्यापक प्रोपर्टी डीलर का काम करता है। बहुत कम स्कूल आता है और जब आ जाता तो उसके कान पर फोन लगा रहता है। ड्राइंग मास्टर की स्टेश्नरी की दुकान है, सुबह उसकी पत्नी और शाम को वह खुद दुकान पर बैठता है। संस्कृत शिक्षक, शास्त्री जी, विवाह-मुहर्त, जन्म-पत्री, ज्योतिष आदि अनेक कामों में लगे रहते हैं। पी० टी० आई० दिन-रात अपने खेतों तथा पशुओं की देखभाल करने की योजना बनाता रहता है। सायं को दूध बेचता है और स्कूल में बैठकर सबका हिसाब जोड़ता है। संक्षेप में कहूँ तो पूरा स्कूल एक डिपार्टमैन्टल सर्विसिज एजेन्सी सा लगता है।

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