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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

शनिवार को बाल सभा में एक दिन आपने सभी बच्चों से पूछा था कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं मेरा नम्बर आया तो मैंने झट से कह दिया था. ‘गुरू जी मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता हूँ।’ उन दिनों वहाँ डॉंक्टर को बहुत सम्मान मिलता था। इन्ही सपनों के साथ मैंने विज्ञान की पढ़ाई भी आरम्भ की परन्तु आज मैं अनुभव करता हूँ भगवान ने मुझे इतनी तीव्र बुद्धि नहीं दी। इसीलिए विज्ञान को बीच में छोड़कर मैं केवल बी० ए० कर पाया। जब कोई दूसरा अच्छा विकल्प न मिला तो बी०एड० करके अध्यापक बनना ही सम्मान जनक लगा और वह मंजिल मैंने पा ली। मैं तो अध्यापक बन गया गुरू जी, परन्तु आप तो बड़े कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। मैं यह तो नहीं जानता कि आपका अध्यापक बनने में क्या उद्देश्य रहा होगा। जो भी हो गुरू जी, मैं अब एक अच्छा अध्यापक बनना चाहता हूँ कृपया इसके लिए मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें।

अनेक बार सुना और पढ़ा भी है कि गुरू संसार का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति है। वह सच्चा ज्ञान देकर भगवान से मिला सकता है। ना जाने मेरा भ्रम है या यथार्थ, आजतक मुझे तो अपने विद्यालय में और आसपास ऐसा गुरू दिखाई नहीं दिया। फिर वह किस गुरू के विषय में लिखा है मेरी तो समझ में नहीं आता कि वह गुरू कैसे बना जा सकता है?

‘जो कुछ कर नहीं सकता वह अध्यापक बनता है’ ‘मुझे तो इस बात में कुछ दम नहीं दिखाई देता क्योंकि अध्यापक बनना इतना आसान नहीं है कि जो चाहे वही बन जाए। सच मानना गुरू जी अध्यापक बनने की प्रक्रिया में मेरा शरीर छिल-छिलकर लहू-लुहान हो गया है। अध्यापक बनने के लिए लोग दोनों जेबें भरे घूमते रहते हैं। मेरे पिता जी भी यही कहते थे-"बेटे शुरू में आधे किल्ले की मार है फेर सारी उमर मौज करेगा"। न तो उस दिन और न आज तक मैं उस मौज का अर्थ समझ पाया। ये तो सच है अध्यापक कुछ न करें तो कोई पूछता नहीं परन्तु कर्मठ अध्यापक का काम कभी पूरा नहीं हो सकता बल्कि करने वाले को अधिक काम दिया जाता है और यही उसकी प्रतिष्ठा है।

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