| 
			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
  | 
        
		  
		  
		  
          
			 
			 205 पाठक हैं  | 
     
राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 रम्भा
 हाँ, अब परियाँ भी पूजेंगी प्रेम-देवता जी को,
 और स्वर्ग की विभा करेगी नमस्कार धरती को।
 जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,
 प्रथम ग्रास में ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;
 धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,
 छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुम्बन से,
 पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,
 और चूमता रहता फिर सुन्दरता की गठरी को।
 इसी देव की बाहों में झुलसेंगी अब परियाँ भी 
 यौवन को कर भस्म बनेंगी माता अप्सरियाँ भी।
 पुत्रवती होंगी, शिशु को गोदी में हलराएँगी
 मदिर तान को छोड़ सांझ से ही लोरी गाएँगी।
 पहनेंगी कंचुकी क्षीर से क्षण-क्षण गीली-गीली,
 नेह लगाएँगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली।
 
 मेनका
 पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन में आती है,
 माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?
 गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
 पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?
 युवा जननि को देख शांति कैसी मन में जगती है!
 रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,
 जो गोदी में लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो
 अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो।
 [एक अप्सरा गुनगुनाती हुई उड़ती आ रही है]
 
 रम्भा
 अरी, देख तो उधर, कौन यह गुन-गुन कर गाती है?
 रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?
 तुम्हें नही लगता क्या, जैसे इसे कहीं देखा है?
  
 सहजन्या
 दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है।
 
 सब
 अरी चित्रलेखे! हम सब है यहाँ कुसुम के वन में;
 जल्दी आ, सब लोग चलें उड़ होकर साथ गगन में।
 भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई।
 
 चित्रलेखा
 रुको, रुको क्षण भर सहचरियों! आई, मैं यह आई।
 खेल रही हो यहीं अभी तक तारों की छाया में?
 स्वर्ग भूल ही गया तुम्हें भी मिट्टी की माया में?
 
 [चित्रलेखा आ पहुंचती है]
 
0
 			
		  			
						
  | 
				|||||

 
		 






			 
