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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा

भाग - 4


सहजन्या
कौन व्यथा उर्वशी भला पाएगी भू पर जाकर?
सुख ही होगा उसे वहाँ प्रियतम को कंठ लगाकर।

रम्भा
सो सुख तो होगा, परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है
जहाँ प्रेम की मादकता में भी यातना निहित है
नहीं पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है
जो भी करती प्रेम, उसे माता बनना होता है।

और मातृ-पद को पवित्र धरती, यद्यपि कहती है,
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नहीं सहती है?
तन हो जाता शिथिल, दान में यौवन गल जाता है
ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है।

रुक जाती है राह स्वप्न-जग में आने-जाने की,
फूलों में उन्मुक्त घूमने की, सौरभ पाने की।
मेघों में कामना नहीं उन्मुक्त खेल करती है,
प्राणों में फिर वही इन्द्रधनुषी उमंग भरती है।
रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते हैं,
पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते हैं।
अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,
कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?

सहजन्या
उफ! ऐसी है घृणित भूमि? तब तो उर्वशी हमारी,
सचमुच ही, कर रही नरक में जाने की तैयारी।
तू ने भी रम्भे! निर्घिन क्या बातें बतलाई है!
अब तो मुझे मही रौरव-सी पड़ती दिखलाई है।

गर्भ-भार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?
यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोएगी?
जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?
यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?
किरण्मयी यह परी करेगी यह विरूपता धारण?
वह भी और नहीं कुछ, केवल एक प्रेम के कारण?

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