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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


रम्भा
स्वर्ग बनेगा मही, मही तब सुरपुर हो जायेगी।
सहजन्ये! हम परियों का इतना भी रोना क्या?
किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या?
हम भी हैं मानवी कि ज्यों ही प्रेम उगे रुक जाये?
मिला जहाँ भी दान हृदय का, वहीं मगन झुक जायें,
प्रेम मानवी की निधि है, अपनी तो वह क्रीड़ा है;
प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है,
जनमीं हम किसलिये? मोद सबके मन में भरने को
किसी एक को नहीं मुग्ध जीवन अर्पित करने को।
सृष्टि हमारी नहीं संकुचित किसी एक आनन में,
किसी एक के लिये सुरभि हम नहीं संजोती तन में।
कल-कल कर बह रहा मुक्त जो, कुलहीन वह जल है,
किसी गेह का नहीं दीप जो, हम वह द्युति कोमल है।
रचना की वेदना जगा जग में उमंग भरती है,
कभी देवता, कभी मनुज का आलिंगन करती है।
पर यह परिरम्भण प्रकाश का, मन का रश्मि रमण है,
गन्धों के जग में दो प्राणों का निर्मुक्त रमण है।

सच है कभी-कभी तन से भी मिलती रागमयी हम
कनक-रंग में नर को रंग देती अनुरागमयी हम;
देतीं मुक्त उड़ेल अधर-मधु ताप-तप्त अधरों में,
सुख से देतीं छोड़ कनक-कलशों को उष्ण करों में;
पर यह तो रसमय विनोद है, भावों का खिलना है,
तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणों का मिलना है।

रचना की वेदना जगातीं, पर न स्वयं रचतीं हम
बंध कर कभी विविध पीड़ाओं में न कभी पचतीं हम।
हम सागर आत्मजा सिन्धु-सी ही असीम उच्छल हैं
इच्छाओं की अमित तरंगो से झंकृत, चंचल हैं।

हम तो हैं अप्सरा, पवन में मुक्त विहरने वाली
गीत-नाद, सौरभ-सुवास से सबको भरने वाली।
अपना है आवास, न जाने, कितनों की चाहों में,
कैसे हम बंध रहें किसी भी नर की दो बाहों में?
और उर्वशी जहाँ वास करने पर आन तुली है,
उस धरती की व्यथा अभी तक उस पर नहीं खुली है।

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