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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


रम्भा
सो क्या, अब उर्वशी उतर कर भू पर सदा रहेगी?
निरी मानवी बनकर मिट्ती की सब व्यथा सहेगी?

सहजन्या
सो जो हो, पर, प्राणों में उसके जो प्रीत जगी है
अंतर की प्रत्येक शिरा में ज्वाला जो सुलगी है।
छोडेगी वह नहीं उर्वशी को अब देव निलय में
ले जायेगी खींच उसे उस नृप के बाहु-वलय में।

रम्भा
ऐसा कठिन प्रेम होता है?

सहजन्या
इसमें क्या विस्मय है?
कहते हैं, धरती पर सब रोगों से कठिन प्रणय है।
लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नहीं आती है,
दिवस रुदन में, रात आह भरने में कट जाती है।
मन खोया-खोया, आंखें कुछ भरी-भरी रहती है,
भींगी पुतली में कोई तस्वीर खडी रह्ती है ।
सखी उर्वशी भी कुछ दिन से है खोई-खोई सी,
तन से जगी, स्वप्न के कुंजों में मन से सोई-सी।
खड़ी-खड़ी अनमनी तोड़ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ,
किसी ध्यान में पड़ी गँवा देती घड़ियों पर घड़ियाँ।
दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नहीं होता है,
आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नहीं होता है।
मुख सरोज मुस्कान बिना आभा-विहीन लगता है,
भुवन-मोहिनी श्री का चन्द्रानन मलीन लगता है।
सुनकर जिसकी झमक स्वर्ग की तन्द्रा फट जाती थी,
योगी की साधना, सिद्ध की नीन्द उचट जाती थी।
वे नूपुर भी मौन पड़े हैं, निरानन्द सुरपुर है,
देव सभा में लहर लास्य की अब वह नहीं मधुर है।
क्या होगा उर्वशी छोड जब हमें चली जायेगी?

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