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उर्वशी
उर्वशी
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
नटी
शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह कणन-कणन-स्वरकैसा?
अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं?
उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणॅ लगी लजाने;
ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?
कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायें उतर रही हैं?
उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?
या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई है?
उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की
नई अर्चियां-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में?
या वसंत के सपनों की तस्वीरें घूम रही है
तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से?
सूत्रधार
लो, पृथ्वी पर आ पहुंची ये सुश्मायें अम्बर की
उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गाने वाले फूलों के।
पद-निक्छेपों में बल खाती है भंगिमा लहर की,
सजल कंठ से गीत, हंसी से फूल झरे जाते हैं।
तन पर भीगे हुए वसन हैं किरणों की जाली के,
पुष्परेण-भूशित सब के आनन यों दमक रहे हैं,
कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर।
नटी
फूलों की सखियाँ हैं ये या विधु की प्रेयसियाँ हैं?
सूत्रधार
नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ हैं,
ये जो शशिधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी हैं,
मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएं हैं
देवों की रण क्लांति मदिर नयनों से हरने वाली
स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की।
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