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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


नटी
पर, सुरपुर को छोड आज ये भू पर क्यों आई हैं?

सूत्रधार
यों ही, किरणों के तारों पर चढी हुई, क्रीड़ा में,
इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती हैं।
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का
क्योंकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,
पर, कह्ते हैं, स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नहीं है।
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,
गगन रूप को बाँहो में भरने को अकुलाता है,
गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित हैं, दोनों के,
अलग-अलग हैं प्रश्न और हैं अलग-अलग पीड़ायें।
हम चाहते तोड़ कर बन्धन उड़ना मुक्त पवन में,
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते हैं।

एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,
कौन श्रेष्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को।
किन्तु, सुनें भी तो, ये परियाँ बातें क्या करती हैं?

{नटी और सूत्रधार वृक्ष की छाया में जाकर अदृश्य हो जाते हैं। अप्सरायें पृथ्वी पर उतरती हैं तथा फूल, हरियाली और झरनों के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती है}

परियों का समवेत गान
फूलों की नाव बहाओ री, यह रात रुपहली आई।
फूटी सुधा-सलिल की धारा
डूबा नभ का कूल किनारा
सजल चान्दनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री !
यह रात रुपहली आई।।

मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन में मौन मगन है।
ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री !
यह रात रुपहली आई।।

मुदित चाँद की अलकें चूमो,
तारों की गलियों में घूमो,
झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढाओ री !
यह रात रुपहली आई।।

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