कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 15 प्रेमचन्द की कहानियाँ 15प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग
सेठजी ने इधर-उधर ताककर कहा, 'यहाँ तो कोई तम्बोली नहीं है।'
सुन्दरी उनकी ओर कटाक्षपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली, 'क्या मेरे लगाये पान तम्बोली के पानों से भी खराब होंगे?'
सेठजी ने लज्जित होकर कहा, 'नहीं-नहीं, यह बात नहीं, तुम मुसलमान हो न?'
सुन्दरी ने विनोदमय आग्रह से कहा, 'ख़ुदा की कसम, इसी बात पर मैं तुम्हें पान खिलाकर छोडूँगी!
यह कहकर उसने पानदान से एक बीड़ा निकाला और सेठजी की तरफ चली। सेठजी ने एक मिनिट तक तो हाँ! हाँ! किया, फिर दोनों हाथ बढ़ाकर उसे हटाने की चेष्टा की, फिर जोर से दोनों ओंठ बन्द कर लिए पर जब सुन्दरी किसी तरह न मानी, तो सेठजी अपना धर्म लेकर बेतहाशा भागे। सोंटा वहीं चारपाई पर रह गया। बीस कदम पर जाकर आप रुक गये और हाँफकर बोले- 'देखो, इस तरह किसी का धर्म नहीं लिया जाता। हम लोग तुम्हारा छुआ पानी पी लें तो धर्म भ्रष्ट हो जाय।'
सुन्दरी ने फिर दौड़ाया। सेठजी फिर भागे। इधर पचास वर्ष से उन्हें इस तरह भागने का अवसर न पड़ा था। धोती खिसककर गिरने लगी मगर इतना अवकाश न था कि धोती बाँध लें। बेचारे धर्म को कंधों पर रखे दौड़े चले जाते थे। न मालूम कब कमर से रुपयों का बटुआ खिसक पड़ा। जब एक पचास कदम पर फिर रुके और धोती ऊपर उठाई, तो बटुआ नदारद। पीछे फिरकर देखा। सुन्दरी हाथ में बटुआ लिये उन्हें दिखा रही थी और इशारे से बुला रही थी। मगर सेठजी को धर्म रुपये से कहीं प्यारा था। दो-चार कदम चले फिर रुक गये।
यकायक धर्म-बुद्धि ने डाँट बताई। थोड़े रुपये के लिए धर्म छोड़े देते हो। रुपये बहुत मिलेंगे। धर्म कहाँ मिलेगा।
यह सोचते हुए वह अपनी राह चले, जैसे कोई कुत्ता झगड़ालू कुत्तों के बीच से आहत, दुम दबाये भागा जाता हो और बार-बार पीछे फिरकर देख लेता हो कि कहीं वे दुष्ट आ तो नहीं रहे हैं।
3. तथ्य
वह भेद अमृत के मन में हमेशा ज्यों-का-त्यों बना रहा और कभी न खुला। न तो अमृत की नजरों से न उसकी बातों से और न रंग-ढंग से ही पूर्णिमा को कभी इस बात का नाम को भी भ्रम हुआ कि साधारण पड़ोसियों का जिस तरह बरताव होना चाहिए और लडकपन की दोस्ती का जिस तरह निबाह होना चाहिए उसके सिवा अमृत का मेरे साथ और किसी प्रकार का सम्बन्ध है या हो सकता है। बेशक जब वह घड़ा लेकर कुएँ पर पानी खींचने के लिए जाती थी तब अमृत भी ईश्वर जाने कहाँ से वहाँ आ पहुँचता था और जबरदस्ती उसके हाथ से घड़ा छीनकर उसके लिए पानी खींच देता था और जब वह अपनी गाय को सानी देने लगती थी तब वह उसके हाथ से भूसे की टोकरी ले लेता था और गाय की नांद में सानी डाल देता था। जब वह बनिये की दूकान पर कोई चीज लेने जाती थी तब अमृत भी अक्सर उसे रास्ते में मिल जाया करता था और उसका काम कर देता था।
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